कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के बाद यह बहस
फिर से शुरू हो गई है कि –
क्या अगले साल होने वाले आम चुनावों में नरेंद्र मोदी की राह मुश्किल हो गई है ?
क्या मोदी की लोकप्रियता कम हो रही है ?
क्या कांग्रेस अब बीजेपी को हराने में सक्षम हो गई है?
बीजेपी पिछले नौ सालों से केंद्र की सत्ता में है और कर्नाटक विधानसभा चुनाव जीतने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी. लेकिन मोदी की यह कोशिश कर्नाटक में रंग नहीं ला पाई. कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के साथ ही उसका दावा मज़बूत हुआ है कि अगले साल लोकसभा चुनाव में बीजेपी विरोधी खेमे का नेतृत्व वही कर सकता है.
अगले साल लोकसभा चुनाव से पहले कई और राज्यों में
विधानसभा चुनाव हैं. इन राज्यों में छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की सरकार है और मध्य प्रदेश में बीजेपी की सरकार है. छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में इसी साल नवंबर महीने में चुनाव हैं और राजस्थान में दिसंबर में कहा जा रहा है कि जिस तरह से मध्य प्रदेश का चुनाव बीजेपी के लिए मुश्किल है, उसी तरह से कांग्रेस के लिए राजस्थान में विधानसभा चुनाव का असर इन तीन अहम राज्यों के अलावा मिज़ो नेशनल फ्रंट शासित मिज़ोरम में नवबंर में चुनाव है और तेलंगाना राष्ट्र समिति से भारत राष्ट्र समिति बनाने वाले के चंद्रशेखर राव शासित तेलंगाना में दिसंबर में चुनाव है. विधानसभा चुनाव का सिलसिला यहीं ख़त्म नहीं होता है.लोकसभा चुनाव से पहले या साथ में आंध्रप्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम और ओडिशा में भी विधानसभा चुनाव हैं.इन राज्यों में अगले साल अप्रैल में चुनाव हैं और लोकसभा चुनाव मई महीने में हैं.लोकसभा चुनाव से पहले कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत बीजेपी के लिए किसी भी लिहाज से अच्छी ख़बर नहीं हो सकती है.ओडिशा में नवीन पटनायक, आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी और तेलंगाना में के चंद्रशेखर राव काफ़ी लोकप्रिय नेता हैं. इन तीनों राज्यों में बीजेपी की मौजूदगी कहीं से भी प्रभावी नहीं है. ऐसे में कर्नाटक के बाद इन राज्यों में बीजेपी के लिए उम्मीद की कोई ठोस वजह नहीं है.
भारत के मतदाता विधानसभा और लोकसभा चुनाव में
जनादेश अलग-अलग तरह से देते हैं. जैसे राजस्थान में
2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को जीत मिली थी
लेकिन लोकसभा चुनाव में राजस्थान की 25 में से 24 पर
बीजेपी को जीत मिली थी.
इसी तरह से मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के नतीजे रहे थे.
हिन्दी प्रदेश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव के नतीजे अलग-अलग पिछले कई चुनावों से दिख रहे हैं. लेकिन आंध्रप्रदेश, ओडिशा और तेलंगाना के विधानसभा और लोकसभा के नतीजे एक जैसे होते हैं.
हिन्दी प्रदेश से अलग जनादेश
आंध्र प्रदेश में 2019 के विधानसभा चुनाव में जगन मोहन रेड्डी की पार्टी वाईएसआरसीपी को बंपर जीत मिली थी और लोकसभा चुनाव में भी कुल 25 सीटों में से 22 पर उसी की जीत हुई थी. तीन सीट टीडीपी के खाते में गई थी. बीजेपी को एक भी सीट नहीं मिली थी.
ओडिशा में भी विधानसभा चुनाव में नवीन पटनायक को
जीत मिली थी और लोकसभा चुनाव में भी 21 में 12 सीटों में पर जीत मिली थी.
तेलंगाना में भी लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव के नतीजे अलग-अलग नहीं थे. मार्च 2000 में ओडिशा के मुख्यमंत्री बनने के बाद से नवीन पटनायक कभी चुनाव नहीं हारे हैं.
कर्नाटक में विधानसभा चुनाव जीतकर भी कांग्रेस इस बात से आश्वस्त नहीं हो सकती है कि लोकसभा में भी उसे जीत मिलेगी. साल 2013 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में बीजेपी 224 विधानसभा सीटों में 40 पर सिमटकर रह गई थी लेकिन 2014 के आम चुनाव में बीजेपी को प्रदेश में 28 सीटों में से 17 सीटों पर जीत मिली थी. वहीं 2019 के लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी 28 में से 25 सीटों पर जीत मिली थी.
मोदी अलोकप्रिय नहीं
वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं, “कर्नाटक में बीजेपी के पास स्थानीय नेतृत्व कांग्रेस की तुलना में काफ़ी कमज़ोर है. बीजेपी के पास येदियुरप्पा के अलावा कोई कद्दावर नेता नहीं है. येदियुरप्पा भी अब काफ़ी अलोकप्रिय हो गए हैं. कर्नाटक में बीजेपी की हार से ज़्यादा कांग्रेस की जीत महत्वपूर्ण है.”
मेरे हिसाब से यह कहना गलत होगा कि कर्नाटक में कांग्रेस की जीत मोदी के अलोकप्रिय होने के कारण है. हाँ ये ज़रूर हो सकता है कि बीजेपी का स्थानीय नेतृत्व ख़ासा अलोकप्रिय था. दूसरी बात यह कि जितनी बड़ी जीत कांग्रेस को मिली है, उससे साफ़ है कि पारंपरिक रूप से बीजेपी को वोट करने वाले लिंगायतों ने भी कांग्रेस को वोट किया है.आने वाले चुनावों में कांग्रेस को बीजेपी से ज़्यादा मुश्किलों का सामना करना होगा. राजस्थान में सचिन पायलट बनाम अशोक गहलोत का विवाद बढ़ता जा रहा है. दोनों नेता दो स्वर में बात कर रहे हैं.
मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया बीजेपी में जा चुके हैं
और इसका सीधा असर प्रदेश कांग्रेस की सेहत पर पड़ा है. दूसरी तरफ़ राजस्थान और मध्य प्रदेश में बीजेपी के भीतर ऐसी कोई कलह नहीं है. नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से कर्नाटक में पूरा ज़ोर लगा दिया था, उसे तगड़ा झटका लगा है. मोदी की अपील काम नहीं आई। मोदी ने चुनावी कैंपेन के आख़िर में बजरंगबली के नाम पर वोट मांगना शुरू किया. कई रोड शो किए लेकिन उनकी अपील काम नहीं आई. बीजेपी ने येदियुरप्पा को हटाकर बासवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री बनाया और यह भी उलटा पड़ा. कर्नाटक में बीजेपी मतलब येदियुरप्पा है. 2012 में बीजेपी ने येदियुरप्पा को हटाकर अपनी हैसियत का अंदाज़ा लगा चुकी थी. यह ग़लती आडवाणी ने की थी और फिर से वही ग़लती मोदी ने दोहराई. भले कर्नाटक चुनाव के नतीजे से अगले साल आम चुनाव का आकलन नहीं कर सकते लेकिन यह तो तथ्य है कि कर्नाटक की जनता ने मोदी की हर अपील ठुकरा दी. बीजेपी के लिए यह सबक़ है कि वह प्रदेश के स्थानीय नेताओं को ख़ारिज कर लंबे समय तक चुनाव नहीं जीत सकती है. बीजेपी सभी प्रदेश को हरियाणा और उत्तराखंड की तरह नहीं हाँक सकती है.
उत्तराखंड में बीजेपी ने पुष्कर सिंह धामी के विधानसभा
चुनाव हारने के बाद भी बीजेपी ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाया था.
पिछले साल दिसंबर में बीजेपी को गुजरात में रिकॉर्ड जीत मिली थी और कांग्रेस को शर्मनाक हार. वहीं हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस को जीत मिली थी. लेकिन हिमाचल में बीजेपी और कांग्रेस के वोट शेयर में मामूली अंतर था. हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस का वोट शेयर 43.90 रहा था और 40 सीटों पर जीत मिली थी. बीजेपी का वोट शेयर 43 प्रतिशत रहा था और 25 सीटों पर जीत मिली थी.
राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में शामिल रहे जाने-माने राजनीतिक एक्टिविस्ट योगेंद्र यादव का मानना है कि
कर्नाटक चुनाव का नतीजा इतना निरपेक्ष नहीं रहेगा.
योगेंद्र यादव ने द प्रिंट में लिखा है, “कर्नाटक के चुनावी नतीजे के बाद उत्साहित कांग्रेसी बीजेपी के अंत की घोषणा कर सकते हैं. बीजेपी प्रवक्ता कहेंगे कि विधानसभा चुनावों का लोकसभा चुनाव से कोई संबंध नहीं है. इसकी भी कोई गारंटी नहीं है कि कर्नाटक में विधानसभा चुनाव का जनादेश लोकसभा में भी दोहराया जाए। कांग्रेस की जीत यह भी बता रही है कि सांप्रदायिकता चुनाव जीतने की गांरटी नहीं है.”
कांग्रेस की जीत पर जाने-माने अर्थशास्त्री और मनमोहन सिंह की सरकार में आर्थिक सलाहकार रहे कौशिक बासु ने लिखा है, “कर्नाटक जो आज करता है, भारत उसे कल करता है”. बासु कहना चाह रहे हैं कि कर्नाटक के आज का जनादेश आने वाले वक़्त का प्रतिबिंब है.
कुल मिलाकर निष्कर्ष यह निकलता है कि बीजेपी को अब आत्ममंथन करने की आवश्यकता है किस प्रकार कर्नाटक चुनाव में अंत समय में बजरंगबली का धार्मिक कार्ड जो खेला गया है उसे लोगों ने पूरी तरह नकार दिया, बीजेपी को अब यह समझना होगा कि यह भारत बदल चुका है धार्मिक कार्ड मध्य भारत में चल सकता है लेकिन जब एक ही बात को बार-बार अलापा जाए तो उसका असर निश्चित रूप से कम ही होगा और बीजेपी के कांग्रेस मुक्त भारत का सपना सपना ही रह जाएगा क्योंकि “यह पब्लिक है सब जानती है” कुल मिलाकर जनता सयानी हो चुकी है।
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